रविवार, 4 जुलाई 2010

नक्सलवाद उन्मूलन में केंद्र की भूमिका ---इच्छाशक्ति का अभाव या वोट की राजनीति




कहतें हैं की जहाँ इच्छाशक्ति होती है वहां रास्ते खुद खुद बन जातें हैं , मगर लगता है की ये बात हमारे देश की केंद्र सरकार की समझ में अभी तक नहीं आयी है तभी तो नक्सलवाद देश की सुरक्षा के के लिए खतरा बना हुआ है और लगातार फन फैला रहा है , और सरकार अभी तक नीति बनाने में ही जुटी है मगर नतीजा शुन्य है , हाँ कभी-कभी किसी नक्सली की गिरफ्तारी पर पुलिस अधिकारी अपनी पीठ ज़रूर ठोक लेते हैं मगर नक्सलवाद के नाम पर पुलिस के जवानों की हत्याओं का दौर ज़ारी है मगर सरकार अभी तक ये तय नहीं कर पायी है की एंटी नक्सल अभियान में सेना उतारी जाए या नहीं हवाई हमले कों ले कर अभी भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है मुझे याद है झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम जिला का एक छोटा सा अनुमंडल है धालभूमगढ़, वहां के प्रखंड पदाधिकारी प्रशांत कुमार लायक कों दिन दहाडे एम् .सी . सी. के उग्रवादी कार्यालय से उठा कर ले गए ,मामला पूरे राज्य में चर्चित हुआ था शिबू सोरेन की सरकार थी लागातार सात दिनों तक असमंजस की स्थिति रही और अंतत: दो लोगो कों छोड़ा गया तब जा कर लायक साहब रिहा हुए वो भी मीडिया के प्रयास से। इस पूरे काण्ड में मीडिया ने बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई। में खुद पूरे समय लायक साहब के परिवार के साथ पल-पल मौजूद था और सारे घटना कों मैंने करीब से देखा यहाँ मैं इस चर्चा कों थोड़ी देर विराम देना चाहूँगा मेरा मानना है की उग्रवाद के पनपने में सरकारी तंत्र और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार भी दोषी है ध्यान देने वाली बात है उग्रवाद वही है ज़हां विकास नहीं है यही कारण है की ये उग्रवादी अनपढ़ नौजवानों कों बड़ी आसानी से बरगला कर अपने जैसा बना देतें हैं मुद्दा वही होता है सरकार की गलत नीतियां और सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन इस अपहरण वाली घटना के समय एक बात और निकल कर सामने आयी की एक पुलिसे वाले ने अपनी पहली पत्नी से छुटकारा पाने के लिए उसे और अपने ससुर कों हत्या और उग्रवाद के झूठे केस में फंसा दिया जब अपहरण हुआ और नक्सली मामलो से सम्बंधित सारे केसो की समीक्षा की गयी तो पुलिस महानिरीक्षक रेज़ी डुंगडुंग ने यह पाया की बहादुर मार्डी और उसकी बेटी जसमी मार्डी कों उसके पुलिस पति रामराइ मार्डी ने ही फसाया है और उस पर विभागीय कारवाई होगी ताकि फिर से इस तरह की घटना की पुर्नावृत्ति हो मगर कुछ नहीं हुआ हाँ वो बेक़सूर ज़रूर साल भर उस गुनाह केलिए जेल में रह गए जो उन लोगो ने किया ही नहीं था। अक्सर ऐसा होता है की पुलिस पैसे या दुसरे कारणों से बेगुनाह लोगो कों फसाती है और उसके बाद या तो वो व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है या अपराधी बन जाता है , मगर उस पुलिस वाले पर कोई करवाई नहीं होती जो एक व्यक्ति की सामाजिक हत्या कर उसे गलत रास्ता दिखा देता है यानी जब वो व्यक्ति बेगुनाह था तब भी उस के पीछे पुलिस और जब उसी पुलिस ने उसे गुनेहगार बनाया तब भी वो उस के पीछे तो दोषी कौन है ?आप अच्छी तरह जान लीजिये मैं ये मानता हूँ और लोगो को भी मानना चाहिए की आज भी पुलिस में इमानदार लोग हैं पर उनकी सुनता कौन है ? हाँ तो अब मुद्दे पर आतें हैं हमबात कर रहें थे उग्रवाद पर, इस से मुझे याद आया हालांकि तब में बहुत छोटा था मगर बात तीन दशक से ज्यादा पुरानी नहीं है उस समय श्रीमती इंदिरा गाँधी देश की प्रधानमंत्री थीं और कुछ सिख अलगाववादिओं ने जनरेल सिंहभिंडरवाला के अगुवाई में सिखों के लिए अलग राष्ट्र खालिस्तान की मांग की थी इसको ले कर एक संगठन का भी गठन हुआ था और बाद में यह पक्का आतंकवादी संगठन बन गया और पूरे पंजाब में आग लगा दी। जहाँ देश में रह रहे कुछ सिख पूंजीपतियों ने इस संगठन को मजबूत किया वही विदेश में रहने वाले सिक्खों ने भी इस संगठन को आर्थिक मदद दे कर अपना समर्थन दिया इसका परिणाम ये हुआ की इस संगठन ने आतंक मचाना शुरू कर दिया और सीधे सरकार को चुनोती देने लगे तब केंद्र मैं इसी कोंग्रेस पार्टी की सरकार थी और श्रीमती गाँधी ने अपनी कठोर इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए कसम सी खा ली की इस उग्रवादी संगठन को उखाड़ फेंकना है बस फिर क्या था कुंवर पाल सिंह गिल पंजाब के पुलिस महानिदेशक बना कर भेजे गए और एक सूत्री काम दिया गया की पंजाब को आतंकवाद मुक्त करना है किसी भी कीमत पर गिल ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया मगर प्लान बना कर चूँकि पंजाब के क्षेत्र जंगलो और खेतो वाला था सो पुलिस ने बख्तरबंद गाड़ियों की जगह बख्तरबंद ट्रेक्टर खेतो और जंगलो मैं दौड़ा कर उग्रवादिओं कों पकड़ना और मारना शुरू किया नतीजा यह संगठन टूटने लगा और अंत में भिंडरवाला अकेला पड गया और सर छुपाने की कोशिश करने लगा मगर उसके पीछे पड़ी केंद्र सरकार और गिल ने अंत में एक अभियान चला कर उसे भी मार गिराया और पंजाब आज तक शांत है आज हमारे पास पुलिस है हथियार हैं मगर प्लान नहीं है यही कारण है की जंगलो में इन उग्रवादिओं के हाथो हर बार पुलिस मात खा रही है और कीमत चूका रहे हैं बेगुनाह जवान अपनी जान दे कर अगर हम लिट्टे की बात करें तो आत्मघाती हमलो के जन्मदाता इस संगठन की श्रीलंका में सामानांतर सरकार खुलेआम चलती थी ये संगठन भी तमिलो केलिए अलग मुल्क की मांग कर रहा था और इसका दखल श्रीलंका से हो कर भारत तक पहुंचा था इसका कारण था की यहाँ तमिलो की संख्या बहुत अधिक है पहले तो इसने आन्दोलन का रूप लिया लेकिन बाद में इसने आतंकवाद का रूप अख्त्यार कर लिया और बहुत ही खतरनाक रूप में सामने आया इस संगठन ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी समेत तीन बड़ी - बड़ी हस्तियों कों अपने आत्मघाती हमलो से मौत के घाट उतार कर उग्रावाद की बड़ी ही भयावह तस्वीर पेश की इसका आतंक भी लगभग तीन दशको तक भारत और श्रीलंका ने संयुक्त रूप से झेला आखिर महिंद्रा राजपक्षे जैसे राष्ट्रपति ने इस संगठन पर अपनी निगाहे टेढ़ी की और इसकोमिटटी में मिला दिया लिट्टे के सारे ठिकाने तहस -नहस कर दिए गए और अंत में प्रभाकरन भी मार दिया गया श्रीमती गाँधी और राजपक्षे ने यह साबित कर दिया की सरकार यदि इमानदारी से चाह ले तो कुछ भी मुश्किल नहीं अब यह देखा जाये की इस अभियान की सफलता मैं रोड़े क्या हैं ? इस अभियान की सबसे बड़ी रूकावट वोट की राजनीति है नक्सल समर्थित कुछ नेताओं का अपना एक बड़ा वोट बैंक है जिसके कारण हर बार सरकार के ही कुछ लोग इस अभियान का विरोध करतें हैं।कई बार झारखण्ड के कुछ नेताओं पर चुनाव में नक्सली समर्थन हासिल करने के आरोप भी लग चुके हैं इसके अलावा राज्य और केंद्र के सुरक्षा बलों में आपसी सामंजस्य का आभाव है जिसका लाभ इन नक्सलियों कों मिल जाता है। मुझे याद है २९ अप्रैल कों में टाटानगर रेलवे स्टेशन पर खड़ा था तभी मेरी मुलाकात एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी से हुई उन्होंने बस इतना कहा की सरकार अगर के. पी. एस. गिल वाले सिद्धांत कों लागू कर दे और मुझे बस दो कम्पनी सी. आर .पी . एफ की बटालियन दे तो इनलोगों का सफाया कोई बड़ा काम नहीं है। मगर हम मजबूर हैं बड़ी कोफ़्त हुई ये सुन कर की काम करने कों लोग तेयार बैठें हैं मगर उनको आदेश नहीं है। तो क्या उग्रवाद यूं ही पनपता रहेगा या कोई उम्मीद की जाए ..................जल्दी कीजिए चिदंबरम जी सिर्फ उग्रवाद के उन्मूलन का प्लान बनाने से कुछ नहीं होगा पुलिसिंग में भी सुधार लाना होगा

सोमवार, 7 जून 2010

झारखण्ड फिर राष्ट्रपति शासन की ओर , जिम्मेवार कौन ?






खंड- खंड झारखण्ड आज की राजनातिक दशा देख कर तो यही लगता है , कभी पूरा संथालपरगना जिसके कदमो में सर झुकता था आज वही व्यक्ति लाचार , परेशान सा अपनी बची हुई जिंदगी मैं राजनैतिक भविष्य तलाश रहा है . जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ शिबू सोरेन की तीन बार झारखण्ड के मुख्यमंत्री बने मार्च २००५ में १० दिनों में चले गए ,अगस्त २००८ में फिर ६ महीने के लिए गद्दी पर आसीन हुए मगर तमाड़ उपचुनाव में राजनीति के नौसीखिया राजा पीटर के हाथो बुरी तरह पराजय के बाद बड़ी बेआबरू हो कर गद्दी छोडनी पड़ी , और झारखण्ड राष्ट्रपति शासन में चला गया ,मगर शिबू सोरेन का मुख्यमंत्री की गद्दी का मोह कम नहीं हुआ और फिर एक बार दिसम्बर २००९ से मई २०१० तक गद्दी पर बैठे . और आज झारखण्ड फिर राष्ट्रपति शासन की चपेट में है . आखिर क्यों ? क्या सिर्फ कुर्सी के लिए झारखण्ड को राजनीति की प्रयोगशाला बनाना यहाँ की साढ़े तीन करोड़ जनता के साथ अन्याय नहीं है ? याद कीजिए ६० -७० के दशक के उस शिबू सोरेन को जिसके एक आवाज़ से संथालपरगना के आदिवासी उठते थे और बैठ जातें थे, सूदखोर और महाजन लोग जिसकी एक हूंकार से कांप उठते थे , जिसको देवता के तरह पूजा जाता था , देवदूत कहा जाता था , जिस गाँव से शिबू सोरेन गुजर जातें थे वहां शराब की भट्टियाँ बंद हो जाती थी . लोगो को यह आशा थी की जब झारखण्ड राज्य बनेगा तब शिबू सोरेन इस राज्य की तस्वीर और तकदीर दोनों बदल देंगे . मगर उसी शिबू सोरेन ने कुर्सी के लिए झारखण्ड की जनता को धोखा दे दिया आज राज्य की राजनेतिक अस्थिरता के लिए सिर्फ और सिर्फ शिबू सोरेन और उनकी पार्टी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जिम्मेवार है . एक राज्य का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा की गठन के १० सालो के अन्दर ७ राज्यपाल और सात बार मुख्यमंत्री बदल गए. गरीबो को खाना नहीं मिल रहा है , लोग गरीबी और भूख से मर रहे हैं गरीबो के पास सर छुपाने कों छत नहीं है गरीब की बेटियों की शादियाँ रुकी हुई है केओंकी मुख्यमंत्री कन्यादान योजना ठप्प पड़ी है , और ये नेता बजाये गरीब जनता के बारे में सोचने के वातानुकूलित कमरों में मजमा लगा कर अपनी कुर्सी बचाने की जुगत लगा रहें हैं . झारखण्ड , उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ इन तीनो राज्यों का गठन एक ही दिन १५ नवम्बर २००० को हुआ मगर झारखण्ड लगातार विकास के पायदान पर नीचे फिसलता चला गया वही दोनों राज्य बहुत आगे चले गएँ हैं . तो क्या झारखण्ड की अवधारणा विफल हो चुकी है ? किसी भी राज्य के विकास के लिए प्रभावी शासन तंत्र होना बहुत ज़रूरी है राजनीतिक अस्थिरता के कारण गवेर्नेस प्रभावित होता है , सोचिये झारखण्ड की क्या गति है की यहाँ शासन तंत्र मौजूद ही नहीं है . जबकि इसके साथ बने दोनों राज्यों में स्थिति झारखण्ड के मुकाबले कहीं बेहतर है .बाबूलाल मरांडी के बाद देखें तो हर सरकार ने इस राज्य को दुधारू गाय की तरह दुहा . सरकार के मंत्री और नौकरशाह अमीर होते गए और जनता लुटती गयी . आज झारखण्ड में सडकें नहीं हैं , शिक्षा की सुविधा नहीं है , हर तरह के खनिज और प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर यर राज्य चंद स्वार्थी नेताओं की वज़ह से अपनी बदहाली पर सिसक रहा है . आखिर झारखण्ड में सुशासन के मायने क्या हैं समाज नहीं आता . एक इंस्पेक्टर रेंक का अधिकारी सी. एम्. को सीधे काम के लिए बोलता है , यह संकेत है इस बात का की झारखण्ड में राजनीति का स्तर किस कदर गिर चुका है .किसी पद की कोई गरिमा नहीं रह गयी है , बस एक प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है की कौन कितना अधिक लूट सकता है , जनता गयी भाड़ में . आज मधु कोड़ा पर दिन पर दिन नए- नए आरोप लग रहें हैं , जांच हो रही है , क्यों नहीं कोई अर्जुन मुंडा पर जांच की बात करता , जिनकी सरकार में न जाने क्या -क्या नहीं हुआ , कांग्रेस ने कहा था की चुनाव के बाद झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्रीओं की संपत्तियों की जांच करवा कर दोषी लोगो को को जेल भेजा जायगा , तो क्या सिर्फ मधु कोड़ा ही कमज़ोर है ? मैंने मधु कोड़ा को देखा है एक इमानदार आदमी को को पहले बेईमान बनाया गया फिर चोर और फिर जेल में डाल दिया .क्या गलती थी उस आदमी की की उसने एक पार्टी विशेष कों समर्थन नहीं दिया ? बस उसी की सजा , तो ठीक है शाबाश मधु कोड़ा आज तक का राजनेतिक सफ़र जब अपने दम पर तय किया है तो ये समय भी निकल जायगा और झारखण्ड के लोग एक नए मधु कोड़ा कों देखेंगे । महा घोटाला हुआ मगर सारा मधु चतुर और चालाक लोग ले उड़े किसी भी परिवार मैं जब कोई सदस्य बदमाशी करता है तो हमेशा से परिवार का मुखिया बदनाम होता है यही मधु कोड़ा के साथ हुआ है ।

सोमवार, 11 जनवरी 2010

शर्म करो जमशेदपुर पुलिस आम आदमी खतरे में है


कल जब जमशेदपुर के हर चौक चौराहों पर आर्म्स जाँच के नाम पर पुलिस जमशेदपुर में आम आदमी कों परेशान कर रही थी उसी समय बड़ी आराम से अपराधिओं ने शाम के .३० बजे टाटा मुख्य अस्पताल के चिकित्सक डॉक्टर आशीष रॉय कों बड़ी आराम से गोली मार दी और चलते बने यह घटना उस इलाके में घटी ज़हां पुलिस की चौकसी सब से ज्यादा रहती है। शहर में हत्याओं का दौर ज़ारी है मगर निक्कमी जमशेदपुर पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है कौन बताये इस पुलिस को की चौक चौराहों पर मोटरसाइकिल से चलने वाले आम आदमी कों रोककर पूछताछ करने से अपराध पर नियंत्रण नहीं होगा इसके लिए सकारात्मक पहल करनी होगी मगर कब एक मंज़र मैं आपकोबताता हूँ,अन्दर डी आई .जी बैठें हैं और शहर में हो रही अपराध की समीक्षा कर रहें हैं अचानक से एक लड़की सामने आती है " सर मुझे बचा लीजिये में एक लडके के चंगुल में फँस गयी हूँ अब वो मुझे ब्लैकमेल कर रहा है ,उसने मेरा सामाजिक जीवन बर्बाद कर दिया है में थाना गयी , डी एस पी के पास गयी एस पी के पास गयी मगर कोई करवाई नहीं हुई डी आई जी का ज़वाब चौकाने वाला था , तो में क्या करूँ आप थाना जाइए केस कीजिए तभी में कुछ कर सकता हूँ पागल लड़की, थाना से ही मामला निपट जाता . पुलिस कों १०,०००० रूपया देती लडके कों थाना में ला कर दम तक वही पुलिस मारती और मामला ख़त्म हो जाता ये है पुलिस का असली रूप आज एस पी नवीन कुमार सिंह परेशान हैं शहर में विधि- व्यवस्था चौपट है मगर लगाम नहीं लगा पा रहें हैं क्या कारण है? ज़ाहिर है की पुलिस में मुकुंद सिंह , शम्भू नाथ सहाय, मिथिला बिहारी शुक्ला,जैसे कुछ गद्दार और देशद्रोही लोग हैं जो पैसे के लिए किसी भी हद तक जा सकतें हैं आज पुलिस का रूप अपराधी से ज़यादा विकृत हो चला है , डॉक्टर प्रभात कुमार मारे गए एक हफ्ता नहीं हुआ की तुषार बागडिया मारा गया , इन्दर पाल सिंह मारा गया , डॉक्टर आशीष रे पर गोली चली ये सब इस स्टील सिटी की जाने पहचानी हस्तियाँ थीं फिर आम आदमी की क्या औकात ? आखिर कौन है जो इस शहर को जला देना चाहता है और पुलिस क्यों इस पर लगाम नहीं लगा पा रही है ज़ाहिर है की अपराधी या तो पुलिस से ज्यादा चालाक है या कुछ पुलिस वाले उन लोगो से मिले हुए हैं जो एस पी कों भी गुमराह कर रहें हैं नवीन कुमार सिंह एक्शन पर यकीन करने वाले व्यक्ति हैं मगर इन अपराधिओं के आगे उनकी भी नहीं चल रही है ज़ाहिर है उनको अपने विभाग के लोगो का सहयोग नहीं मिल रहा है। अगर ऐसा है तो इस शहर का भगवान् ही मालिक है आज परवेज़ हयात , रविन्द्र कुमार , डॉक्टर अजय कुमार बड़ी याद रहें है ये वही आई पी एस हैं जिनलोगों ने अपनी कार्यशेली से इस शहर कों अपराधमुक्त किया था ऐसा नहीं है की आज काबिल पुलिस ऑफिसर नहीं हैं मगर शायद या तो वो काम नहीं करना चाहते या काम से दूर कर दिए गए हैं अब लाख टके का सवाल यह है की क्या होगा इस शहर का , क्या लोग यूं ही मारे जाते रहेंगे , पुलिस से तो होने से रहा तो आम आदमी की सुरक्षा की गारंटी कौन देगा ? सब से बड़ी बात है की पुलिस अपराधिओं तक पहुँच नहीं पाती उस से पहले ही एक नयी वारादात हो जाती है आखिर कब तक चलेगी ये खून की होली ?.......................................इसका ज़वाब शायाद किसी के पास भी नहीं है एक मीडिया पर्सन होने के नाते मैं परेशान हूँ और सोचने कों मजबूर भी की आखिर पुलिस-अपराधी गठबंधन से नुकसान किसका है ...........समाज का क्यों नहीं पुलिस ईमानादारी से अपना काम करती और ये सोचती है की वो भी इसी समाज का एक हिस्सा है खैर कभी तो सोचेगी ................मगर तब तक देर हो जाए